
मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था, क्योंकि आखिरकार मुझे सीआई के लिए घर मिल गया। मुश्किलें तो बहुत आईं, पर अंत भला तो सब भला। एक महीने का सामान लेकर मैं आंटी के पीछे उनके घर की तरफ चल पड़ी। मन में बहुत सारे सवाल उमड़ रहे थे – घर कैसा होगा, मैं कैसे रहूंगी? पर एक चीज जो मैंने अपने मन को समझा ली थी कि मैं उस घर में बेटी की तरह रहूंगी।
घर में बस दो लोग रहते थे – आंटी और उनकी बहू। बेटा केरल में नौकरी करता था और साल में बस एक बार आता था। यह वाक्य दूसरी रात का है, रात का खाना खाने के बाद आंटी ने मुझे कहा, “चल, तुझे भैया की शादी की वीडियो दिखाती हूं।“ हिमाचली शादी देखने का यह मौका मैं भी गंवाना नहीं चाहती थी, तो मैं भी खुशी से उनके पीछे चल पड़ी।
एक जगह पर मैंने देखा कि आंटी रो रही थीं। मैंने हंसकर पूछा, “आंटी, आप तो बहू ला रही हैं, फिर आप क्यों रो रही हैं?” आंटी की आंखें डबडबा गईं, मायूसी भरी आवाज में उन्होंने कहा, “तेरे अंकल नहीं हैं ना, बेटे। मुझे उनकी याद आ रही थी।“
मैं खामोश हो गई, क्योंकि इस दर्द से तो मैं वाकिफ थी – मां की आंखों में जो देखा है। इस बात का मुझे एहसास था कि कुछ दर्द कभी कम नहीं होते, बस उन पर समय एक चादर डाल देता है। आप उस दर्द को कम या खत्म कभी नहीं कर सकते, बस उस पर प्यार से हाथ फेर सकते हैं। आराम बस उसी से मिलता है।
वीडियो खत्म होने के बाद मैंने आंटी का हाथ अपने हाथ में लिया और उनकी नम ऑंखों में देखकर पूछा, “आंटी, आपको आज भी अंकल की कमी उतनी ही गहरी महसूस होती है?” आंटी ने सिसकती आवाज में कहा, “बीते बीस सालों में ऐसा कोई दिन नहीं है जब उन्हें अंकल की याद न आई हो।“ मैंने उनके हाथ को थामे रखा, ताकि उन्हें यह एहसास हो कि मेरे पास उन्हें सुनने के लिए भरपूर समय है।
उस रात आंटी ने मुझसे अपने अंदर दबी कितनी भावनाओं को साझा किया, बीते बीस सालों में कितनी मुश्किलों और परेशानियों के बाद भी उन्होंने हार नहीं मानी और अपने दम पर अपने बच्चों को पाल-पोसकर बड़ा किया। एक पल को मुझे ऐसा लगा जैसे मैं अपनी मां को सुन रही हूं। आंटी की आंखों में बहती भावनाओं का मुझे समुंदर दिख रहा था, जिसमें खुशी, गम, ताकत सब थे।
इस पूरे समय मैंने आंटी का हाथ नहीं छोड़ा। अंत में उन्होंने मुझे कहा, “काफी देर हो गई, बेटे, अब तू सो जा।“ मैंने उन्हें बिना कुछ बोले गले से लगा लिया। वो मेरी पीठ सहलाने लगीं जैसे कि मेरा शुक्रिया अदा करना चाह रही हों।
उस पल मुझे यह एहसास हुआ कि आज के जमाने में पैसों और खाने से ज्यादा लोगों को लोगों की कमी है। उस रात मैं काफी देर तक सोच रही थी, बिहार से आई मैं हिमाचल के किसी कोने में किसी अनजान से घर में जाकर किसी के दर्द का मरहम बन जाऊंगी,ये कब मैंने सोचा था। मैं मन ही मन गांधी फेलोशिप का धन्यवाद कर रही थी कि मुझे न सिर्फ यह मौका मिला कि मैं आंटी के दर्द को अपना पाऊं, बल्कि यह समझ पाऊं कि पैसों से ज्यादा कीमती है किसी को अपना समय देना।
आज करुणा की इतनी कमी हो रही है कि न ही इंसान के पास समय है किसी और के दर्द को सुनने का न अपने साझा करने का। भावनाओं को लोगों ने इस कदर जकड़ रखा है कि वो खुलकर सांस भी नहीं ले पा रहे।
मुझे उस पल यकीन हुआ कि शायद मेरा उस समय उस पल में रहना नियति थी, पर एक ऐसे इंसान ज़रूरत सभी को है। उस रात के बाद मैं आंटी के लिए बेटी बन गई, अब उनकी आंखों में मैं अपने लिए वो प्यार देख पाती हूं जो सिर्फ अपनी मां की आंखों में देखा है।
आज के ज़माने को जब मैं खामोश रहकर देखती हूं, जहां हर कोई सर झुकाकर अपने फ़ोन में मिलो दूर बैठे किसी से बात कर रहा, पर कोई भी नज़र उठाकर ये क्यों नहीं देखता कि कितने लोग चुपचाप उनके बगल में बैठकर इंतज़ार कर रहे उनके नज़र उठाने का और कुछ उनके दिल की सुन जाने का।
इस पल में मुझे एहसास हुआ कि ज़िंदगी में हमें एक दूसरे के साथ जुड़ने की ज़रूरत है, एक दूसरे की बात सुनने की, एक दूसरे के दुख-दर्द को समझने की। अगर हम ऐसा करेंगे, तो हमारे आसपास की दुनिया भी बदल जाएगी।
TAGS
SHARE