
नमस्कार, मेरा नाम अर्चना कुशवाहा है। मैं मध्यप्रदेश के सतना जिले से हूं। मेरी यह कहानी उन दिनों की है, जब गांधी फेलोशिप के दौरान मेरे लिए एक पड़ाव Community Immersion का आया। Cl का प्रोसेस मेरे जीवन के अध्याय का एक नया अनुभव था। CI मैं बहुत सारी उम्मीदें लेकर गई थी, अपनी सीख के लिए, 'लेकिन जब एक नए दिन, नए अनुभव के लिए अपना पहला कदम बढ़ाया तभी मुझे रोक दिया गया। मेरे Cl हाउस में मुझे समुदाय से बाहर जाने की अनुमति नहीं दी गई। तब उस क्षण मेरे हृदय को इतना बड़ा आघात पहुंचा कि मानो मैं उसे शब्दों में बयां नहीं कर सकती। मैं CI के दौरान उस समुदाय को जानना चाहती थी, वहां कुछ नया सीखना चाहती थी, लेकिन मुझे ऐसा करने से रोका गया और बोला गया कि "तुम एक लड़की हो", बाहर कहां जाओगी, बाहर का माहौल अच्छा नहीं है, तुम घर पर ही रहो और यहीं रहकर अपने 23 दिन' बिताओ। तब मैंने सोचा कि मैं अपने शहर को छोड़कर दूसरे शहर कुछ नया सीखने आई हूँ और मेरी इस नई सीख के लिए बेहतर मंच मुझे CI प्रोसेस ने दिया है, लेकिन इसके लिए मैं ना ही बाहर जा पा रही थी, ना ही कुछ सीख पा रही थी।
जरा सोचिए कि जब मुझे रोका गया, तब उस गांव में मेरे जैसी और कितनी लड़कियां होंगी जिन्हें अपने जीवन में कुछ बड़ा करना होगा, कुछ हासिल करना होगा, लेकिन उन्हें अपनी मंजिल तक जाने के लिए पहली सीढ़ी भी चढ़ने नहीं दी गई। उन्हें चार दीवारों में बंद कर दिया गया, यह बोलकर कि “तुम एक लड़की हो", तुम बाहर नहीं जा सकती, तुम्हारे साथ कुछ गलत हो जाएगा। तब उस लड़की पर क्या बीतती होगी, जिसके पास उड़ने के लिए पंख तो हैं लेकिन उसे उड़ने देने के बजाय उसके पंखों को बांधकर रख दिया जाता है। इसका कसूरवार कौन है? हम? आप? या यह समाज?
गांव के इस परिदृश्य और मेरे CI हाउस के सदस्यों की सोच को देखकर, मुझे बहत दुख हुआ। लेकिन मैं इसे अपनी हार नहीं मानने वाली थी और मैंने उन्हें समझाया, उनसे बात की उन्हें शिक्षा के महत्व के बारे में बताया, शिक्षा की ताकत के बारे में बताया, जिसके सहारे आज मैं यहां तक पहुंच पाई हूं। मैंने उन्हें एक दिन समझाया लेकिन वह नहीं माने और मुझे अकेला ना भेजकर मेरे साथ खुद भी समुदाय दौरे में मेरे गए, लेकिन फिर भी मैंने हार नहीं मानी और दूसरे दिन फिर अपनी बात दोहराई, उसके बाद उन्होंने मुझे तीसरे दिन घर से बाहर अकेले ही जाने की अनुमति दी।
अब मैं समुदाय दौरे के लिए और गांव के परिवेश को जानने के लिए, घर से बाहर निकल तो गई लेकिन समुदाय में भी वही दृश्य मेरी आंखों के सामने था, “तुम एक लड़की हो”, लड़की घर से बाहर अकेले नहीं जा सकती, स्कूल दूर है, सुनसान रास्ते से होकर जाना पड़ता है इसलिए उन्हें स्कूल नहीं जाने दिया जा रहा था और बोला जा रहा था कि तुम घर के काम करो और अपने सपनों को भूल जाओ। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं कैसे उन्हें दुनिया कि इस खूबसूरती को दिखाऊं, उनके हाथ पकड़ कैसे मैं उन्हें ऊंची उड़ान मरने के लिए मंजिल का रास्ता बताऊं, मैं बस उनके दर्द को महसूस कर सकती थी। तब मैंने सोचा कि-मेरी एक कोशिश क्या पता बदलाव कर जाए और तब मैंने वहां की महिला ओं से घर-घर जाकर संपर्क किया, उनसे बात की, जहां भी महिलाएं मुझे गांव में एकत्रित मिलती, मैं उनसे बात करने चली जाती। उनके साथ समय व्यतीत करती और उन्हें समझने की और समझाने की कोशिश करती। उन्हें शिक्षा की ताकत के बारे में बताती और कहती कि हमारी सोच के अनुसार हमें फैसला लेने का अधिकार होना चाहिए। उन्हें बताया कि 'लड़की पर नहीं बल्कि हमें समाज के व्यवहार और सोच में परिवर्तन लाने की आवश्यकता है। समाज की सोच के कारण हम लड़कियों को क्यों चारदीवारी में बंद रखें। मैंने उन्हें इसे गहराई से समझाने के लिए अपना उदाहरण प्रस्तुत किया, कि आज मैं शिक्षा की ताकत से ही अपने राज्य से दूसरे राज्य में आकर कार्य कर रही हूं।
इसके पश्चात मैंने लड़कियों के पिता जी से भी बात की, उन्हें समझाने की कोशिश की, कि उन्हें अपनी लड़कियों के सपनों को भी उड़ान भरने दें, उन्हें स्कूल भेजें, माध्यमिक शिक्षा, उच्च शिक्षा से लेकर उत्कृष्ट शिक्षा तक के इस सफर को पूर्ण करने में उनका हौसला बढ़ाएं।
अंततः मेरी इस मेहनत का नतीजा मुझे सकारात्मक मिला। अभिभावकों ने अपनी बेटियों को स्कूल मेजना शुरू कर दिया और यहां तक की उत्कृष्ट शिक्षा भी पूर्ण करने के लिए लड़कियों को बाहर जाने की अनुमति प्रदान करने लगे।
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